जब सबसे वंचित लोग अपने संसाधन साझा करते हैं!
सचिन कुमार जैन
हम सोशल मीडिया में ऐसे कई चित्र देख रहे हैं, जिनमें संस्थाएं जरुरतमंदों को राहत सामग्री दे रही हैं। पर कई कहानियां सोशल मीडिया के पटल पर उपेक्षा की शिकार भी हैं। मसलन समाज के सबसे गरीब, उपेक्षित और कमज़ोर तबकों का अपने बेहद सीमित संसाधनोंके बावजूदकुपोषित बच्चों, गर्भवती-धात्री महिलाएं और वृद्धों की मदद करना।और ये संसाधन है किचन गार्डन या पोषण वाटिका।
लॉकडाउन के बाद 5 साल से कम उम्र के बच्चों, गर्भवती महिलाओं और धात्री माताओं के सामने पोषण का संकट खड़ा था। पोषण आहार कार्यक्रमों का व्यवस्थित सञ्चालन न होना और बेरोज़गारी ने इसे और बढ़ा दिया। ऐसे में समाज ने अपनी ताकत का इस्तेमाल किया और कुपोषण को बड़ा संकट बनने से रोका।
सामाजिक संस्था विकास संवादसमूहों के साथमध्यप्रदेश के चार जिलों में कुपोषण के सामुदायिक प्रबंधन कार्यक्रम पिछले पांच सालों से संचालित कर रहा है। इस दौरान जिन सब्जी बाड़ियों को समाज ने विकसित किया वे इस वक्त बड़ा सहारा बन गईं। इन जिलों की 232 पारिवारिक सब्जी बाड़ियों वाले परिवारों ने संकट काल में 425 परिवारों के साथ 37.25 क्विंटल सब्जी अब तक साझा की है। यानी एक परिवार को औसतन 16 किलो सब्जियां उपलब्ध करवाई गयीं। इससे कुपोषण से प्रभावित 217 बच्चों, 140 गर्भवती और धात्री महिलाओं और 68 बुजुर्गों को मदद मिली।
रीवा जिले में की सामाजिक कार्यकर्ता सियादुलारी आदिवासी कहती हैं कि “गाँव में लोग सप्ताह में एक बार 20 किलोमीटर से सप्ताह भर का राशन लेकर आते हैं। तालाबंदी के कारण गंभीर चुनौती खड़ी हो गयी थी। तब हमने अपने साथियों से बात की और दो काम किए, पहला सार्वजनिक वितरण प्रणाली की दुकान से ज्यादा से ज्यादा लोगों को राशन दिलवाना और गर्भवती-धात्री महिलाओं और 5 साल से कम उम्र के बच्चों के पोषण की व्यवस्था करना। लेकिन यह होगा कैसे?उसमें सबसे बड़ा सहारा बने वह 1100 किचन गार्डन, जो गांव में बने हैं। लोगों ने इस बात को समझा। तय हो गया कि जिनके यहाँ सब्जियां पैदा हो रही हैं, वे जितना संभव हो सके बच्चों और महिलाओं के पोषण में सहयोग करें, क्योंकि हम लगातार सह-अस्तित्व की भावना को प्रोत्साहित भी करते रहे हैं”।
कहानी एक –
सतना जिले के डाड़िन गाँव की रज्जी बाई मवासी की दो बेटियां कृष्णा और सुकांति अतिगंभीर कुपोषण से प्रभावित थीं। पोषण पुनर्वास केंद्र में भर्ती करने पर उनकी स्थिति में सुधार आता पर बार—बार उसी चक्र में फंस जातीं। 2016 से उन्होंने सब्जी बाड़ी लगाई। जिसके बाद उनके यहां लगभग 9 महीने की सब्जियों की उपलब्धता होने लगी। उनके परिवार से कुपोषण का खतरा कम हुआ। वे बाज़ार में भी सब्जियां बेचते लगे।
तालाबंदी के बाद इसी किचिन गार्डन से उनकी जरूरत तो पूरी हुई ही; साथ ही उन्होंने अच्छे लाल, राम लखन, अनुज, संपतिया, बूटी मवासी को भी हर हफ्ते अपने बाग़ से दो से तीन बार 25 किलो सब्जियां दीं। रामखिलावन मवासी कहते हैं कि “हमें पता है कि अच्छे लाल की आर्थिक स्थिति खराब है और उसकी बेटी कमज़ोर (कुपोषित) भी है। हमें लगा कि उनके परिवार की मदद करना चाहिए। महामारी के काल में अगर हम एक दूसरे का साथ नहीं देंगे तो कौन देगा?”
कहानी दो –
मुड़खोहा गाँव के राजभान गोंड के यहाँ सब्जियों के 280 पौधे लगे हैं। कटहल, अमरुद और आम के पेड़ भी हैं। वे 25 मार्च से उन 7 परिवारों को सब्जियां दे रहे हैं, जिनमें अल्पपोषित बच्चे या गर्भवती महिलाएं हैं। उनका कहना है कि “बीमारी का तो डर है ही, किन्तु हमें अपने समाज के बच्चों और महिलाओं की सुरक्षा का भी ध्यान रखना है।”
कहानी तीन –
सतना जिले के देवलहा गाँव की ललता आदिवासी चार साल से सब्जी बाड़ी लगा रही हैं। उन्होंने आधे बीघे में टमाटर, तोरई, भिन्डी, बरबटी, पालक, गेंदा फूल लगाया है। इससे वे हर महीने 2000 रूपए कमाती हैं, लेकिन कोविड19 के बाद से वे 11 जरुरतमंद परिवारों को सब्जी निशुल्क दे रही हैं।
कहानी चार –
पन्ना जिले के विक्रमपुर गाँव की कस्तूरी बाई ने 2-3 दिन नमक से रोटी खाई, क्योंकि उनके पास आटे और नमक के अलावा कुछ और था ही नहीं। वह विकलांग भी हैं। जब तुलसा बाई को पता चला तो उन्होंने अपनी बाड़ी से सब्जी भिजवाई। डेढ़ महीनों से यह सिलसिला जारी है। 14 गांवों में 41 परिवारों ने 573 किलो सब्जियां समुदाय में निशुल्क दी हैं।
परियोजना से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता रवि पाठक कहते हैं कि “महामारी ने लोगों को बहुत भयभीत कर दिया है, किन्तु लोगों ने परिस्थिति का सामना करने के रास्ते निकालने भी शुरू कर दिए। इसमें सबसे आगे वह महिलाओं रहीं जो तीन-चार सालों से स्वास्थ्य, पोषण और नेतृत्व क्षमता विकास की प्रक्रिया से जुड़ी हुई हैं”।
कहानी पांच – पटी गाँव की विट्टी बाई लॉकडाउन के बाद सबसे पहले दिहाड़ी पर काम करने वाले उसी गाँव के निवासी हरिशंकर के घर गयीं, क्योंकि उनका बेटा हिमांशु कुपोषित था। विट्टी बाई तय किया कि जब तक तालाबंदी है, तब तक परिवार को सब्जियां मिलती रहे।
कहानी छः –
गांधी ग्राम गाँव में रविता अहिरवार ने पलायन से वापस आये हरिबाई के परिवार की मदद की। हरिबाई के घर में उत्पादन का कोई स्रोत नहीं था। उनके पास न तो जमा राशि थी, न ही अनाज के अलावा कोई खाद्य सामग्री। पहले दिन नमक से ही रोटी खाई। तब रविता अहिरवार ने दस्तक महिला समूह में चर्चा की और निर्णय लिया कि जिन परिवारों के पास भी किचिन गार्डन हैं, वे अन्य जरूरतमंद परिवारों का सहयोग करेंगे।
कहानी सात –
सतना जिले के कैल्होरा की कृष्णा मवासी ने 15 परिवारों को सब्जियां बांटी। जब यह कहानी विकास संवाद के सदस्य विजय यदुवंशी द्वारा ट्वीट किया तो मुख्यमंत्री ने सराहना की। अगले दिन स्थानीय सांसद गणेश सिंह गाँव पहुंचे और गांव में 15 लाख रूपए के विकास काम शुरू करवाए।
कहानी आठ –
रीवा जिले की नीरू कोल कहती हैं कि “आज पूरी धरती पर संकट है। अभी धन-संपदा का कोई मोल नहीं। मोल तो उस सबको साझा करने का है, जो भी अपने पास है। पहले हम अपनी बाड़ी की कुछ सब्जियां दूसरे परिवारों से साझा करते थे, हम 13 परिवारों के साथ अपनी सब्जियां साझा कर रही हैं। ये कोई दान या भीख नहीं है।”
कहानी नौ –
उमरिया के मगरघरा गाँव की केसरी बाई बताती हैं जब तालाबंदी हो गयी, तब मन में यही बात आई कि यदि गाँव में सब्जियां बाँट दीं, तो अपना काम कैसे चलेगा? लेकिन पर वो सब बातें याद आयीं, जो हम अपने दस्तक समूह में करते रहे। कहते रहे कि सभी बच्चों को हष्ट-पुष्ट बनाना है। तब तय किया कि जितना भी उत्पादन हो सबके साथ साझा करना है। अब तक 90 किलो सब्जियां अन्य परिवारों के साथ साझा की हैं।
कहानी दस –
मनमानी पंचायत की बाबी बाई कहती हैं“आज लोगों के पास काम-धंधा नहीं है, तो उनकी मदद करने कौन आएगा? सब बंद है। लोगों के पास पैसे भी नहीं है और हमारे यहाँ सब्जी लगी है। आज अपनों के काम नहीं आएंगे तो हमारे रहने का कोई मतलब नहीं होगा।”
समाज की ताकत लड़ रही संकट से
मध्यप्रदेश में कुपोषण गंभीर विषय है। यहाँ 11 लाख कुपोषित बच्चों के परिवार बहुत जद्दोजहद करके अपनी जरूरतों को पूरा कर रहे थे। कोविड19 से उत्पन्न हुई स्थितियों ने ज्यादा बड़ी समस्याएं खड़ी कर दीं। लेकिन सामाजिक बदलाव के लिए किये जा रहे संस्थागत कार्यों के असर की पड़ताल भी तो ऐसे ही संकट के समय में होती है। ऐसे में100 गांवों में कुपोषण के सामुदायिक प्रबंधन के लिए संचालित कार्यक्रम में 5867 किचिन गार्डन और महिला समूहों के सामाजिक-आर्थिक सशक्तिकरण के प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहे हैं।
कुपोषण मिटाने के मकसद से चलाये जा रहे कार्क्रम में जल संरचनाएं भी बनाई गयीं, बीजों का संरक्षण और खेती का विकास, किचिन गार्डन-पोषण वाटिकाएं भी स्थापित की गईं हैं। इस क्षेत्र में बच्चों पर पड़ रहे असर का अध्ययन किया जा रहा है। अध्ययन के मुताबिक 1435 परिवारों में से 232 परिवारों ने 425 परिवारों के साथ तकरीबन 37.25 क्विंटल सब्जियां निशुल्क साझा कीं। यानी सामाजिक बदलाव के लिए सामाजिक संस्थानों द्वारा किए जा रहे सतत प्रयासों से समानुभूति का भाव तो पैदा हो रहा है।