छोटी जोतों से बनी बड़ी रिश्तेदारी की पहल
झारखंड के पालकोट विकासखंड का लिटिम गांव चट्टानों के विशाल पहाड़ों से घिरा हुआ है। लिटिया नाम की छोटी चिड़िया के नाम पर बसे इस गांव के 8 किसान परिवारों ने साझा उद्यानिकी का प्रयोग किया और खेती की मौजूदा समस्याओं का समाधान बताता है। एकीकृत और टिकाऊ कृषि पर केंद्रित “पहल” कार्यक्रम के अंतर्गत यहां के ठस्कु राम, शिवनारायण, तेजेश्वर, कर्मा, महादेव सिंह, कृष्णा, जगजीवन और रामप्रसाद ने अपनी अपनी छोटी जोतों को मिलाया और मिलकर 5 एकड़ के क्षेत्र में सब्जियों के उत्पादन के लिए साझा खेती (पहल वेजीटेबल कलस्टर) के लिए एकजुट हुए। वर्ष 2021 से शुरू किए गए इस प्रयोग के कारण इन आठ किसानों ने एक साल में 5 लाख रुपए लाभ देने वाली लगभग 2 टन सब्जी का उत्पादन किया है। इसमें रसायनों का कोई इस्तेमाल नहीं हुआ।
इस समूह के सक्रिय सदस्य ठस्कू राम बताते हैं कि “हमें अपनी एक बीघे से भी कम जमीन पर वर्ष में चार बार उपज मिलती है और हर उपज से हमें लगभग 13 हजार रुपए की शुद्ध आय हो रही है यानी लगभग 50 हजार रुपए की सालाना आय। पहले हम इस जमीन पर इतनी कम सब्जी कर पाते थे कि घर की भी जरूरत पूरी नहीं हो पाती थी, लेकिन पहल कार्यक्रम के सहयोग के कारण हम न केवल आय कमा रहे हैं, बल्कि घर की सब्जी की जरूरत भी इसी से पूरी कर रहे हैं”। वे बताते हैं कि करेला, लौकी, धनिया, हरी मिर्च, शिमला मिर्च, गोभी, टमाटर, बोदी, कद्दू, प्याज, लहसुन समेत 11 तरह की सब्जियां पैदा हो रही हैं और उपज को नियमित रूप से पालकोट बाजार में बेचा जाता है।
इस साझा खेती में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली नोमी देवी बताती हैं कि पहल कार्यक्रम की किसान पाठशाला से हमें इस उम्र में नई शिक्षा हासिल करने का मौका मिला। जब सब्जियों का उत्पादन शुरू किया गया, तब शुरू से यह तय किया गया था कि हम रासायनिक खाद और दवाई नही डालेंगे। गांव के कई किसानों के खेत की मिट्टी इतनी कड़क हो गई थी कि उसकी जुताई ही नहीं हो पा रही थी, लेकिन गोबर और प्राकृतिक कचरे की खाद से अब मिट्टी नरम होने लगी है। हम जीवामृत और घन जीवामृत डाल कर मिट्टी को फिर से जिंदा कर रहे हैं। जब फसल में कोई बीमारी लगती है तो नीमास्त्र का इस्तेमाल करते हैं, जो नीम की निंबोली से बनता है”।
विकास संवाद द्वारा एचडीएफसी बैंक – परिवर्तन के सहयोग से संचालित पहल कार्यक्रम का उद्देश्य है कि खेती में अब होने वाले भारी खर्चों (लागत) को कैसे काम किया जाए और किसानों की आय बढ़े? इसके लिए “अपने बीज, स्थानीय खाद, प्राकृतिक औषधि” के माध्यम से मिट्टी और उपज प्रबंधन किया जाए। इसके तहत जैविक खाद, मिट्टी के पोषक तत्वों और कीट प्रबंधन की नीति को अपनाया गया है।
नोमी देवी बताती है कि, “हम डेढ़ साल से कोई रासायनिक खाद या कीटनाशक नहीं ला रहे हैं। इसी से 10 हजार रुपए की बचत हो जाती है। देशज खाद से उपजी सब्जी का स्वाद भी बहुत अलग होता है। पहले तो सब्जी में खूब तेल और मसाला डालना पड़ता था ताकि स्वाद आए। लेकिन अब जो उपज आती है, उसे कम तेल और बहुत कम मसाले से बघार देने पर ही बहुत स्वाद आ जाता है”।
“पहले जब रासायनिक खाद डालते थे तो उपज तो ज्यादा होती थी, लेकिन मन अच्छा नहीं रहता था”। नोमी देवी कहती हैं। अब उनसे लिटिम गांव की ही नहीं, बल्कि दूसरे गांवों की महिलाएं देशज खाद बनाना सीखना चाहती हैं।
इस समूह के दूसरे किसान कृष्णा और कांति देवी ने न केवल खेत की जमीन पर सब्जियां उगाईं, बल्कि पहल कार्यक्रम की सोच से प्रभावित होकर अपने घर में ही लगभग 500 वर्गफिट जमीन में पोषण वाटिका लगा ली है। और उसकी देखरेख बहुत मेहनत से करती हैं।
कांति देवी कहती हैं कि “पोषण बगिया लगाने से सब्जी तो मिल रही है, लेकिन इसमें काम करने से मन को भी अच्छा लगता है। इस बगिया से केवल हम अपने लिए सब्जी नहीं लेते हैं, बल्कि गांव के दूसरे परिवार भी इससे सब्जी लेते हैं। यानी आपसी रिश्ते भी मजबूत हुए हैं। प्रेम बढ़ा है”।
पहल कार्यक्रम के तहत सबने मिलजुल कर तय किया कि ठस्कु राम की जमीन पर जो कुआं है, उसके बुनियाद मजबूत की जाए और मरम्मत की जाए। ठस्कु राम कहते हैं कि “उनके मन में यह बात नहीं है कि मेरे कुएं से बाकी के दूसरे आठ किसानों की जमीन क्यों सींची जा रही है? अगर मिलकर काम कर रहे हैं तो ही जमीन के छोटे से टुकड़े का इतना लाभ हुआ, वरना क्या होता? पहल कार्यक्रम के लोगों ने कई बार बात की, योजना बनाने में मदद की, कुआं ठीक कराया, देशी खाद बनाना सिखाया, तब जाकर परिणाम आए”।
— सचिन कुमार जैन