सामुदायिक प्रबंधन से कुपोषण से दो हाथ करता विरगढ़ा
समाज के सभी संसाधनों का उचित उपयोग करके, लोगों, सरकार और संस्थाओं की पहल से कुपोषण जैसी स्थिति को कैसे नियंत्रित किया जा सकता है, विरगढ़ा यही बताता है ! विरगढ़ा मध्यप्रदेश के सतना जिले के मझगवां ब्लाक मुख्यालय से 25 किलोमीटर दूर जंगल किनारे बसा है। यहां 35 आदिवासी गोंड समुदाय के परिवार रहते हैं, जनसंख्या 179 है, जिनमें 92 महिलाएं और 87 पुरुष हैं। परिवारों की आजीविका का मुख्य साधन खेती और मजदूरी है।
सतना जिला कुपोषण के मामले में संवेदनशील रहा है। विरगढ़ा गांव के हालात भी ऐसे ही थे। यहाँ जून 2016 में पांच साल तक के साठ प्रतिशत बच्चे कुपोषित थे, जिनमें चालीस प्रतिशत बच्चे गंभीर कुपोषण का शिकार थे। 24 बच्चों में से अतिकम वजन के 11, मध्यम कम वजन के 4 और सामान्य वजन के 9 बच्चे थे। स्वयंसेवी संस्था विकास संवाद ने जब यहां पर अपने सामुदायिक कुपोषण प्रबंधन कार्यक्रम के लिए इस गांव में बच्चों के आंकड़े हासिल किए तो यह जानकारी सामने आई।
उस वक्त गांव में आंगनवाड़ी केंद्र नहीं था। गर्भवती /धात्री माताओं और 6 साल तक की उम्र के बच्चों को 3 किलोमीटर दूर छिवलहा की आंगनवाडी जाना पड़ता था। कच्ची रोड होने के कारण न तो बच्चे और न माताएं केंद्र जा सकती थीं, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता के लिए पहुंचना भी मुश्किल होता. जबकि कुपोषण दूर करने में आंगनवाड़ी केन्द्र की एक प्रमुख भूमिका होती है।
ऐसे में यहां पर महिलाओं, किशोरियों और युवाओं के 10 -10 सदस्यों का समूह बनाया गया और तय किया गया कि प्राथमिक स्वास्थ्य, पोषण, खाद्य सुरक्षा और स्वच्छता के मुद्दों पर काम किया जाए। समस्याओं का हल समुदाय के माध्यम से ही खोजा जाए और सरकारी योजनाओं का भी पूरा लाभ दिलाया जाए। इसके लिए स्थानीय प्रशासन की भी मदद ली जाए।
किचन गार्डन की रणनीति
इनमें एक मुख्य जरिया था पोषण सुरक्षा के लिए किचन गार्डन बनाए जाए। समुदाय की पहल पर उद्यान विभाग से मिलकर सामुदायिक और व्यक्तिगत किचन गार्डन बनाए गए। ज्यादातर परिवार अपने घरों के आगे /पीछे बरसात में सब्जियां प्रतिवर्ष लगाते हैं, पर वह पूरे साल भर नहीं होतीं, और उनमें विविधता का अभाव रहता। इस काम को व्यवस्थित तरीके से किया गया। वर्ष 2016 में गांव में 9 गंभीर कुपोषित बच्चों के परिवारों में भिन्डी, लौकी, कद्दू, तरोई के देशी बीज लाकर दिए। समुदाय में उपलब्ध बीजों जैसे, सेम, मिर्च, धनिया, पालक, मेथी, करेली को मिलाकर क्यारियां तैयार करके सब्जी उत्पादन शुरू किया गया। इसका बहुत बेहतर परिणाम निकला। प्रति परिवार लगभग लगभग 60 किलो उत्पादन हुआ। जिसको इन परिवारों ने स्वयं के भोजन में इस्तेमाल किया. अच्छा परिणाम मिला तो अगले साल तत्कालीन कृषि विस्तार अधिकारी श्री संतोष कुमार शर्मा से बातचीत की और विभाग ने 700 पैकेट सब्जी के बीज दिए। दूसरे साल गांव के सभी घरों में यह बीज बांटे। गांव में एक अनौपचारिक स्कूल संस्था ने बनाई, जिसका नाम दस्तक बाल विकास एवं देखरेख केंद्र दिया गया। इसके सामने खाली पड़ी लगभग आधा एकड़ जमीन में सामुदायिक किचन गार्डन लगाया गया। सब्जियों का उपयोग केंद्र में बच्चों के भोजन में किया गया। इस साल गांव में प्रति परिवार 100 किलो सब्जी का उत्पादन हुआ।
टिकाऊ खेती
कुपोषण दूर करने के लिए टिकाउ खेती भी करना जरूरी था। उसे समुदाय के पोषण और खाद्य सुरक्षा के अनुकूल बनाना था। इसके लिए 2016 में दो गांवों के 52 किसानों के साथ देशी खेती और बीजों के जानकार बाबूलाल दाहिया के साथ गोष्ठी की गई। इस गोष्ठी के बाद किसानों ने देशी धानों और गेहूं की विभिन्न प्रजातियों की खेती करने का निर्णय लिया। दाहिया जी ने यहां देसी किस्म “ करधना “ का बीज 20 किसानों दिया। फसल आने के बाद सभी किसानों ने अपने गांव में बीज बैंक बनाया और उसमे 6 -6 किलो धान देकर 120 किलो धान एकत्र किया, जिसको कि अगले साल के बीज हेतु सुरक्षित किया गया। संस्था ने कृषि विज्ञान केंद्र मझगवां से संपर्क करके गेंहू की उन्नत बीज गांव में 23 किसानों को प्रति किसान 40 किलो उपलब्ध करवाया, इस बीज को किसानों ने गांव में लगभग 20 एकड़ में बुवाई की और फसल की देखरेख की जिसका उत्पादन प्रति किसान लगभग 8 कुंतल हुआ, सभी किसानों ने 1150 किलो गेहूं अगली फसल के लिए बीज बैंक में जमा किया। 2017 चार नाडेप बनाए ताकि फसलों को पोषण मिल सके। इसमें गोबर की खाद तैयार की गई। इससे यहां की खेती में परिवर्तन आने लगा और पहले से बेहतर पोषण के विकल्प मिल गए।
प्रारंभिक बाल देखरेख केंद्र
जब गांव में महिलाओं के साथ लगातार बैठक होती रहीं तो कुपोषण पर भी बात होती। महिलाओं का कहना था कि दूसरे गांवों की तरह उनके गांवों में भी एक आंगनवाड़ी होनी चाहिए। इसके लिए कोशिश होनी चाहिए, तय किया गया कि गांव में जब तक आंगनवाड़ी नहीं खुलती है एक ‘देखरेख केन्द्र’ बनाया जाए जिसमें सभी सहयोग करें। इसके लिए गांव की सविता और लक्ष्मी ने अपने नाम आगे बढ़ाए। केंद्र कहां बने, इस समस्या को भी समुदाय ने दूर किया और गांव के ही बेटा लाल ने अपने घर का एक हिस्सा मुफ्त में देने का निर्णय लिया. विकास संवाद ने सम्बंधित सामग्री उपलब्ध करवाई और कार्यकताओं की क्षमतावृद्धि की जिम्मेदारी ली। जून 2016 से केंद्र शुरू हुआ। केन्द्र ठीक वैसे ही काम करता जैसे आंगनवाड़ी। स्थानीय भोजन सामग्री से बच्चों के लिए पोषण युक्त भोजन, नाश्ता दिया जाता, संचालन में समुदाय के लोग बराबर भागीदारी करते थे. महिला बाल विकास और स्वास्थ्य विभाग भी पूरा सहयोग देता और पूरक पोषण आहार और स्वास्थ्य परीक्षण, टीकाकरण और उपचार नियमित होने लगा।
व्यंजन दिवस
महिला समूहों के तय किया गया कि बच्चों की रूचि का भोजन पकने की सोच और आदत स्थापित करने के लिए स्थानीय अंशदानों से आई भोजन सामग्री से व्यंजन बनाने और खाने के सामूहिक आयोजन किए जाएं। हर माह गांव में व्यंजन दिवस का आयोजन होने लगा। हर माह स्थानीय सामग्री से 7 से 10 तरह के स्वादिष्ट और पोषण से भरपूर व्यंजन बनाए जाने लगे। इसका असर समुदाय में लोगों की थाली पर भी पड़ा, उनके पोषण में विविधता आई।
जल की उपलब्धता
साफ पानी एक बड़ी जरूरत है। यह किचन गार्डन के लिए भी जरूरी है। इसके लिए समुदाय ने 2 कुओं को श्रमदान से साफ किया। दो हैण्डपम्पो की मरम्मत का काम करवाया। जलस्त्रोतों में ब्लीचिंग पावडर डाला गया। एक नया कुआं भी तैयार किया जिससे ग्यारह परिवारों को लाभ हुआ।
इस बदलाव में महिला बाल विकास विभाग का पूरा सहयोग मिलने लगा। लोगों को योजनाओं का पूरा लाभ मिलने लगा। जब संस्था ने 18 माह बाद दिसम्बर 2018 में इन कामों के परिणाम को देखा तो पाया गांव में कोई भी बच्चा अतिकम वजन का नहीं था। समुदाय की जागरूकता का स्तर बढ़ गया। प्राथमिक स्वास्थ्य, पोषण और आजीविका की सेवाओं तक पहुँच भी बढ़ गयी .
वर्तमान में गांव में 0 से 5 साल तक के बच्चों की संख्या 13 है इनमें 9 बच्चे सामान्य अवस्था में हैं। अतिकम और मध्यम कम वजन के दो—दो बच्चे हैं। कोशिश की जा रही है कि ये बच्चे भी सामान्य श्रेणी में जल्दी ही आ जाएं। चुनौतियां अब भी हैं। विरगढ़ा में आंगनवाड़ी खेाली जानी है।
विरगढ़ा गांव हमें बताता है कि स्थानीय संसाधनों का उपयोग और बेहतर समन्वय करके कुपोषण और खादय असुरक्षा की स्थिति से कैसे निपटा जा सकता है।